यूक्रेन और रूस के बीच जारी युद्ध ने न केवल भौगोलिक सीमाओं को प्रभावित किया है, बल्कि यूक्रेन के लोकतांत्रिक ढांचे के सामने भी एक बड़ा संवैधानिक संकट खड़ा कर दिया है। वर्तमान में यूक्रेन एक ऐसे दोराहे पर खड़ा है जहां एक तरफ युद्ध की विभीषिका है और दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय समुदाय, विशेषकर अमेरिका का चुनावी दबाव।
कार्यकाल की समाप्ति और मार्शल लॉ का पेंच
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की का आधिकारिक कार्यकाल 20 मई 2024 को समाप्त हो चुका है। सामान्य परिस्थितियों में देश में चुनाव हो जाने चाहिए थे, लेकिन फरवरी 2022 से लागू मार्शल लॉ (सैन्य शासन) के कारण चुनाव टाल दिए गए। यूक्रेनी संविधान के तहत युद्धकाल में चुनाव कराना न केवल चुनौतीपूर्ण है, बल्कि तकनीकी रूप से प्रतिबंधित भी है। जेलेंस्की इसी प्रावधान का सहारा लेकर पद पर बने हुए हैं, जिसे रूस 'अवैध' करार दे रहा है।
फंड की कमी: एक नई चुनौती
अब जब शांति वार्ता की मेज पर अमेरिका और पश्चिमी देश यूक्रेन पर चुनाव कराने का दबाव बना रहे हैं, तो कीव ने 'आर्थिक तंगी' का कार्ड खेल दिया है। राष्ट्रपति कार्यालय के सलाहकार मिखाइल पोडोल्याक ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यूक्रेन के पास चुनाव कराने के लिए पैसे नहीं हैं।
यूक्रेन का तर्क है कि:
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सैन्य प्राथमिकता: बजट का बड़ा हिस्सा युद्ध और सैन्यीकरण पर खर्च हो रहा है।
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विदेशी मदद की जरूरत: यूक्रेन का मानना है कि यदि दुनिया चाहती है कि वहां चुनाव हों, तो इसका खर्च भी अन्य देशों को ही उठाना होगा।
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आर्थिक ढांचा: युद्ध ने देश की अर्थव्यवस्था को जर्जर कर दिया है, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लिए फंड जुटाना असंभव है।
शांति प्रस्ताव और अमेरिकी दबाव
डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका की भावी विदेश नीति और वर्तमान शांति प्रयासों में '20 पॉइंट शांति प्रस्ताव' एक अहम भूमिका निभा रहा है। इस प्रस्ताव की एक प्रमुख शर्त यह है कि समझौते के तुरंत बाद यूक्रेन को लोकतांत्रिक चुनाव कराने होंगे।
रूस इस स्थिति का फायदा उठाते हुए जेलेंस्की के 'जनादेश' पर सवाल उठा रहा है। पुतिन प्रशासन का तर्क है कि जेलेंस्की अब यूक्रेन के वैध राष्ट्रपति नहीं रहे, इसलिए उनके साथ किया गया कोई भी समझौता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य नहीं होगा। वहीं, अमेरिकी राजनीति में भी यह नैरेटिव जोर पकड़ रहा है कि जेलेंस्की चुनाव से बचने के लिए युद्ध को खींच रहे हैं।
चुनाव के रास्ते में व्यावहारिक बाधाएं
सिर्फ पैसा ही एकमात्र समस्या नहीं है, बल्कि व्यावहारिक चुनौतियां कहीं अधिक जटिल हैं:
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विस्थापित मतदाता: संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, लगभग 5.9 मिलियन यूक्रेनी शरणार्थी विदेशों में हैं और 4.4 मिलियन लोग देश के भीतर ही विस्थापित हैं। इतनी बड़ी आबादी के लिए मतदान की व्यवस्था करना एक लॉजिस्टिक दुःस्वप्न है।
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सुरक्षा जोखिम: रूस द्वारा लगातार किए जा रहे हवाई हमलों के बीच पोलिंग बूथ बनाना और लोगों को वहां तक बुलाना उनकी जान को खतरे में डालने जैसा है।
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पारदर्शिता: युद्ध के माहौल में निष्पक्ष चुनाव और अंतरराष्ट्रीय मानकों को पूरा करना लगभग असंभव है।
निष्कर्ष
यूक्रेन में चुनाव का मुद्दा अब केवल आंतरिक राजनीति का विषय नहीं रहा, बल्कि यह वैश्विक भू-राजनीति का हिस्सा बन चुका है। फंड की कमी का मुद्दा उठाकर यूक्रेन शायद समय खरीदने की कोशिश कर रहा है या फिर पश्चिमी देशों से अतिरिक्त वित्तीय सहायता की उम्मीद कर रहा है। अंततः, यूक्रेन में लोकतंत्र की बहाली तभी संभव होगी जब युद्ध विराम की स्थिति बने और अंतरराष्ट्रीय समुदाय आर्थिक व सुरक्षा संबंधी गारंटी प्रदान करे।