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Film Review - साइना



चैंपियन बनने के लिए जरूरी हैं ये सारी बातें, साइना की बायोपिक से समझिए खास मंत्र

Posted On:Sunday, March 28, 2021


किसी खिलाडी की बायोपिक बनाना आसान नहीं होता। पहले तो ये कि हर अभिनेता खिलाड़ी भी रहा हो जरूरी नहीं होता और दूसरे ये भी कि हर खिलाड़ी के जीवन में इतनी नाटकीयता हो ही, ये भी जरूरी नहीं है। फिल्म ‘साइना’ में अमोल गुप्ते के सामने चुनौतियां ढेर सारी रही हैं। सिर्फ इतनी ही नहीं कि फिल्म अटक अटक कर बनने में बरसों लग गए बल्कि उन्होंने खेल ऐसा चुना है जिसे खेलने वाले गली मोहल्ले में तो बहुत हैं लेकिन अभिनय करने वाले इसे बहुत कम खेलते हैं। लेकिन, अमोल कमाल के निर्देशक हैं। तकनीशियन भी बहुत ही अच्छे हैं। कैमरे के जरिए कहानी कहने में उनका जोड़ नहीं हैं। बस उन्हें अपना खुद का तोड़ इस बात के लिए निकाल लेना चाहिए कि आखिर उनकी फिल्म में उनकी अपनी कितनी चलनी चाहिए और कितनी दर्शकों की पसंद की।
 
फिल्म ‘साइना’ अमोल ने दर्शकों की पसंद के हिसाब से ही बनानी शुरू की थी। उन दिनों श्रद्धा कपूर को देख लग रहा था कि दीपिका पादुकोण के बाद नंबर 2 की कुर्सी पर वही काबिज होने वाली हैं। अमोल के साथ साइना बनकर उन्होंने शूटिंग शुरू भी कर दी लेकिन ये सिनेमा है। और, सिनेमा में जब तक सब कुछ रिलीज न हो जाए, कुछ भी हो सकता है। यहां बनी फिल्में रिलीज होने में बरसों लग जाते हैं और सानिया जैसी पूरे जोशो खरोश से शुरू फिल्में बनने में भी बरसों लग सकते हैं। फिल्म ‘साइना’ का बनना और रिलीज होना ही अपने आप में एक बड़ा सबक है सिनेमा का। अमोल गुप्ते ने बतौर निर्देशक अपना हौसला, हिम्मत और हुनर फिर एक बार बड़े परदे पर पेश किया है। परिणीति चोपड़ा में भले उन्हें एक काबिल कलाकार इस रोल लायक न मिला हो लेकिन फिल्म ये जरूर देखी जानी चाहिए।
 
अमोल गुप्ते का सिनेमा एहसास का सिनेमा है। ये एहसास ऐसे हैं जो हो सकता है आपको परदे पर दिखें ना। इन एहसासों को किरदारों की मनोदशा में देखने वाली आंखें चाहिए। नंबर दो पर आई बिटिया को मां से मिला तिरस्कार आपको भीतर तक हिला सकता है। आम अभिभावक बच्चे के दूसरी पोजीशन पर हवा में हो सकते हैं। लेकिन, यहां एक मां है जिसे नंबर एक से कम कुछ नहीं चाहिए। एकाध फिल्में इन मांओं के मनोविज्ञान पर भी अलग से बननी चाहिए। सानिया ने जीवट दिखाया और मां का सपना पूरा कर दिया, दुनिया की नंबर एक बैडमिंटन खिलाड़ी बनकर। फिल्म के इन लम्हों में ऋतिका फोगट बहुत याद आई। क्या उसके साथ भी किसी ने नंबर दो आने पर ऐसा सलूक किया था?
 
उषा और हरवीर सिंह नेहवाल की बिटिया सानिया की ये बायोपिक कुछ कुछ वैसी ही है जैसी निर्देशक नीरज पांडे ने महेंद्र सिंह धोनी के गौरव गान के लिए बनाई थी, उनकी अनटोल्ड स्टोरी के नाम से। फिल्म में वह सब कुछ है जो धोनी ने दिखाना चाहा। ऐसा कुछ भी नहीं है जो धोनी को धोनी बनाने वालों ने देखना चाहा। एक बायोपिक को बनाने का उद्देश्य ही उसके भविष्य में याद रह जाने और न रह जाने लायक सिनेमा के बीच की लकीर बनता है। फिल्म में वह कुछ नहीं है जिसके चलते सानिया कई बार सुर्खियों में रहीं। सानिया नेहवाल की ये बायोपिक एक ब्रांडिग एक्सरसाइज है लेकिन इसके बाद भी इस फिल्म का वह हिस्सा अद्भुत है जिसमें साइना अभी बच्ची ही होती है।
 
साइना नेहवाल पर बनी फिल्म ‘साइना’ का पहला हिस्सा जिसमें उनका किरदार एक असल बैडमिंटन खिलाड़ी नायशा ने निभाया है, कमाल का है। उनकी सर्विस, उनका साइड लाइन के बीच में बिजली सा इधर से उधर चमकना, नेट के पास से शटल को पकड़ना और दूसरी तरफ से बनी वॉली पर स्मैश मारना, उनका हर स्टांस सांसें रोक देने वाला है। लगता ही नहीं कि आप फिल्म देख रहे हैं। बायोपिक असल में यही होती है। मन करता है कि बस साइना बड़ी न हो और बड़ी भी हो तो बस ऐसे ही खेलते हुए बड़ी हो जाए। लेकिन ये हिंदी सिनेमा है। यहां हीरो या हीरोइन बिना फिल्म कम ही सोची जाती है। फिल्म में परिणीति आती हैं। लोगों की उम्मीदें बुझने सी लगती हैं। लेकिन, परिणीति ने मेहनत में कसर नहीं छोड़ी है। बस, मामला ही यहां भी उनकी पहुंच के बाहर का ही है।
 
परिणीति चोपड़ा एक बेहतरीन अदाकारा बनते बनते रह गईं कलाकार हैं। यशराज फिल्म्स ने जिस हीरोइन को लॉन्च किया हो, हिंदी सिनेमा में उसका अवसान यूं महीने भर के भीतर एक के बाद एक तीन फिल्मों ‘द गर्ल ऑन द ट्रेन’, ‘संदीप औऱ पिंकी फरार’ और ‘साइना’ में हो जाएगा, किसने सोचा होगा। परिणीति अफलातून इंसान हैं। कलाकार भी वह हरफनमौना हैं। शूटिंग सेट पर भी उनमें अपना सरनेम चोपड़ा होने का एहसास दिखता है। इंटरव्यू आदि के समय वह बढ़िया अभिनय करती हैं। स्वैग भी पूरा दिखाती हैं। बस वैसा नैचुरल स्वैग कैमरे के सामने उनसे हो नहीं पाता। हालांकि, फिल्म ‘साइना’ सिर्फ उनकी ही मौजूदगी से लड़खड़ाती हो, ऐसा नहीं है, फिल्म की पटकथा में भी बहुत सारी बातें अमोल गुप्ते ने जानबूझकर नहीं डाली हैं।
 
फिल्म ‘साइना’ तकनीकी रूप से अधिकतर विभागों में एक उम्दा फिल्म दिखती है। अमितोष नागपाल के संवाद बहुत पैने और धारदार हैं। एक हरियाणवी मां के इतने बेहतरीन संवाद लिखने का उनको अच्छा फल भी मिलने वाला है। पीयूष शाह ने एक स्पोर्ट्स फिल्म के हिसाब से कैमरे की प्लेसिंग, लाइटिंग और मूवमेंट बहुत सटीक रखा है। उनका कैमरा फिल्म का एक अहम किरदार बनकर काम करता दिखता है। ऐसी ही चुस्त अंगुलियां दीपा भाटिया की भी चली हैं फिल्म की वीडियो एडीटिंग मे। साउंड डिजाइन और संगीत के मामले में फिल्म कमजोर है। अमाल मलिक फिल्म के संगीतकार है, लेकिन फिल्म की आत्मा को दर्शक सीधा मन से महसूस कर सकें, ऐसा कोई गाना फिल्म में बन नहीं पाया है।
 
 


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