लखनऊ न्यूज डेस्क: लखनऊ के सिविल अस्पताल में भर्ती मरीज शानू का इलाज चार महीने से चल रहा था, लेकिन हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। उनकी बहन शहनाज़ का आरोप है कि अस्पताल से मिल रही दवाओं का असर नहीं दिख रहा था। जब डॉक्टरों ने बाहर से दवा लाने की सलाह दी, तो शक गहरा गया और मामला जांच तक पहुंच गया।
जांच के लिए दवाओं के सैंपल लखनऊ यूनिवर्सिटी की फार्मेसी लैब भेजे गए। वहां किए गए टेस्ट में कई दवाएं फेल पाई गईं। फार्मेसी डायरेक्टर पुष्पेंद्र त्रिपाठी ने बताया कि टैबलेट, कैप्सूल और इंजेक्शन की जांच अलग-अलग प्रक्रिया से होती है। डिसइंटिग्रेशन, डिसॉल्यूशन, एस्से और क्लैरिटी टेस्ट में खामियां सामने आईं।
डॉ. त्रिपाठी के अनुसार, अगर 500mg की दवा में केवल 400mg ही कंटेंट निकले या दवा शरीर में घुले ही नहीं, तो उसे सबस्टैंडर्ड कहा जाता है। यही समस्या कई दवाओं में मिली, खासतौर पर ciprofloxacin टैबलेट्स पेट में घुल ही नहीं रही थीं। इंजेक्शन में भी क्लैरिटी और कणों की समस्या मिली। इसका मतलब यह हुआ कि मरीजों को दी जा रही दवाएं असरदार ही नहीं थीं।
मामले की गंभीरता को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने सख्ती दिखाई है। चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिव पार्थ सारथी सेन ने बताया कि यूपी मेडिकल सप्लाइज कॉरपोरेशन ने दोषी कंपनियों पर जुर्माना लगाया है, स्टॉक वापस मंगवाया है और शो कॉज नोटिस जारी किए हैं। सरकार का कहना है कि मरीजों की जिंदगी से खिलवाड़ कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।